बचपन के वह हसीन यादें।

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ब्लॉग प्रेषक: डॉ. अभिषेक कुमार
पद/पेशा: साहित्यकार व विचारक
प्रेषण दिनांक: 14-04-2025
उम्र: 35
पता: ठेकमा, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर: 9472351693

बचपन के वह हसीन यादें।

वह क्या दौर था, ओ रे मनवा, वह क्या दौर था...

जब ताड़ तर अनूप के साथे ताड़ी पीने नहीं, तड़खाजा खाने जाया करते थे।  

पुआल के गांज पर बैठ, धूप में तन को तपाया करते थे।  

गन्ने की मिठास चूसते, बेर झाड़ने की जुगत लगाया करते थे।  

अमराई में भटकते, कच्चे आमों को ढेला से झाड़ चुराया करते थे।


वह क्या समय था, ओ रे सजना, वह क्या समय था...

जब स्कूल शौख से नहीं, मां की मार के डर से जाया करते थे।  

स्लेट पर पेंसिल से चांद-सितारे बनाया करते थे।  

गुरुजी की छड़ी से बचने कि ठिठोली में, मित्रों के संग दिन बिताया करते थे।  

कागज की नाव बनाकर, स्कूल की राह वाली पईन में बहाया करते थे।  


वह क्या दौर था, ओ रे मितवा, वह क्या दौर था...

जब गाय चराने नहीं, इसके बहाने गुल्ली-डंडा खेलने निकल जाया करते थे।  

दुर्गा पूजा में ड्रामा, नौटंकी देख मित्रों के संग हमलोग बिना दर्शक के नाटक मंचन किया करते थे।

हरि चाचा वाली आम की डाल पकड़ झूला झूल, डोल पत्ता खेल हंसी-मजाक में डूब जाया करते थे।  

खेतों की पगडंडीयों पर दौड़ते, धूल-मिट्टी उड़ाते ढेला-ढेकवाही किया करते थे।  


वह क्या समय था, ओ रे साथिया, वह क्या समय था...

जब अपने खेतों से नहीं, पराये खेतों से चना कबाड़ा करते थे।  

मूंगफली उखाड़, भुट्टे भून, मचान पे चढ़ शोर मचाया करते थे।  

दोपहर में पड़ोसी की नींद हराम कर, हंसी के ठहाके लगाया करते थे।  

पके आमों को चुराकर, मुंह मीठा कर गीत गाया करते थे।  


वह क्या जमाना था, ओ रे यारा, वह क्या जमाना था...

जब साइकिल की सैर कर बरियावां बाजार जाया करते थे।  

कागज की कश्ती तिराकर, पानी में सपने बुन लिया करते थे।  

बारिश की बूंदों में नहाकर, कीचड़ से सने घर लौट आया करते थे।  मां की डांट सुन, फिर भी मन में हंसी ठहाके लागाया करते थे।  


वह क्या दिन थे, ओ रे प्यारे, वह क्या दिन थे...

जब छठ पूजा में आम की लकड़ी चुराने की ठान लिया करते थें।  

गांव के रवींद्र चाचा जहां भी नजर आएं, उन्हें रोक उनसे मजाक कर उनकी मजाकिया लहजे सुन लिया करते थें।  

रात में तारों की गिनती कर, सपनों के पीछे खो जाया करते थें।  

कोयल की तान और कौवों की कर्कश काँव-काँव में झूमते, गांव की मिट्टी में रम जाया करते थें।  


वह दौर था, वह समय था, ओ रे मनवा, वह जमाना था...

जब बचपन की मस्ती में डूबे, नानी घर जाने का एक अलगे आनंद आया करता था।  

गांव की गलियों, खेत-खलिहानों में, दिल का हर कोना मुस्कुराया करता था।  

वह प्यारा बचपन, वह माटी की खुशबू, हर सांस में बस जाया करता था।

डॉ. अभिषेक कुमार

साहित्यकार व विचारक 

मुख्य प्रबंध निदेशक

दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र 

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