दर्द - ए - दिल

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ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा: व्यंग्कार
प्रेषण दिनांक: 06-06-2024
उम्र: 37
पता: Garhwa, jharkhand
मोबाइल नंबर: 9006726655

दर्द - ए - दिल

दर्द -ए -दिल

भोरहरिया जब नींद खुला और बाहर निकला तो देखे की सब लोग महादेव थान के चबूतरा के तरफ दौड़ लगा रहा है। हम अकबका गए की गांव में कोई गुजर तो नही गया। हमहु फटाफट दौड़ के चबूतरा के पास गए। वहां जाकर देखा की बहादुर चा मार सिसक सिसक के रो रहे हैं। आंख आऊ नाक के पानी मिलके ठुड्डी पर जमा हो गया था। का हुआ, पूछने पर कुछ बता भी नही रह थे। ज्यादा पूछने पर आऊ जोर जोर से रेंकने लगते।

 बेटी शादी के बाद बिदाई में जैसे गाना गा गा कर रोती है जैसे "तोरे से पटल हमरो कपार ढिलिया, ससुरा में केकरा से हेराईब ए माई। उसी प्रकार बहादुर चा भी गा गा कर रो रहे थे।

 अरे बताइए महाराज हुआ का है !  बहुत पूछने पर बहादुर चा बताना शुरू किया। 

हमर घर में हमर मर्जी छोड़ के सबके मर्जी चलता था, हमर दादा जी के इयार के पोती से मेरा शादी लगा, हमरा शादी करे के मन नही था, ई बात पर हमर दादाजी बोले की तू क्या तोर दादा भी बियाह करेगा। लड़की के मुंह भी नही देखे थे, मजबूरी में बियाह तय हो गया। मंडप में जब दुल्हन के आठ आदमी टांग के लाया उसी समय करेजा पहला बार कांपा था। पंडितजी ने कहा की दुल्हन अपना हाथ दूल्हे के हाथ के ऊपर रखिए, जब वो हाथ रखी लगा अस्सी किलो का हथौड़ा हाथ पर आ गया। खैर अगले दिन बिदाई हुआ। ड्राइवर और हम आगे मारुति वैन पर थे और पिछला सीट पर अकेले हमर मेहरारू थी, साला एक इंच जगह नही बचा था की हम भी पीछे बैठते। गाड़ी एक किलोमीटर ही गया होगा की पिछला टायर के पास का दु गो पत्ती वजन नही सह पाने के कारण टूट गया। ई देख के हमर करेज़ा भी टूट गया।

 सात बाई साढ़े छौ फिट का पलंग मिला था हमको, जब रात में मेहरारू उस पलंग पर पसरी तो मात्र नौ इंच जगह खाली मिला था हमको, उसी जगह पर चित्ते लेट गए हम। दिक्कत ई था की एकाध इंची भी दायां होते तो धड़ाम से नीचे और बायां होते तो केचा के मर जाते।

 अभी तक मुंह नही देखे थे उसका, दरवाजे के पास खड़ी होती तो पता ही नही चलता था की दरवाजा खुला है या बंद है। खायल पियल घर का होना ठीक है लेकिन इतना भी नही खिलाना पिलाना चाहिए की दुसर के घर नरक बन जाए। मुंह धो के जब ऊ बत्तीस गो धुसका खाई तो ऐसा लगा मानो गाय चारा खा रही हो। दु बजे फिर सानी पानी लगाया गया, एक डेकची भात और दू लिटरी कुकर के सब दाल आलू के चोखा जोरे ऐसन खाई की मत पूछिए। एक तो हम बेरोजगार ऊपर से खदोढ मेहरारू। गलती से टोक दिए एक दिन की थोड़ा डाइटिंग करो, फिर क्या था, दे केहूनी दे केहुनी सब डाइटिंग का विचार हमरे पर उतार दी।

 उस दिन के बाद गजब के हथछुट हो गई, टीवी के सीरियल में भी यदि सास अपने पुतोह पर अत्याचार करती, तो ये देख कर मेहरारू अपना फ्रस्टेशन हमरा कूट के निकलती, ऐसा नहीं है की हमने प्रतिरक्षा में कोई कमी छोड़ी हो, लेकिन इतना न गुदगर थी की उसे चोट कहां लगता था।

 तीज बरत, करवा चौथ और बट सावित्री पूजा बड़ी उत्साह से करती थी। उपवास के दिन बारह बजे तक तो अपने चर्बी से अपना खुराक लेती थी लेकिन शाम होते होते नर पिशाचनी बनके अपने भूख के बदले हमरा कुटे के बहाना खोजती। रिवाज के अनुसार सुबह में पंखा हांकती और रात में उसी पंखा के डंडा से हमको कूटती। रात के चलनी में चांद से मेरी तुलना करती और फिर उसी चलनी को हमर गर्दन में फंसा कर फांसी देने का प्रयास। पैर छूती तो मन कपसायल रहता की कहीं टंगड़ी खींच के बजाड़ न दे।

 आम तौर पर बियाह के बाद मेहरारू चौड़ा ही जाती है क्योंकि अपना सारा टेंशन पति परमेश्वर के हवाले कर चैन की नींद जो लेती है।

 कल रतिया लगता है जान बूझ कर आपन दोनो पैर हमर छाती पर रख दी थी,  ऐसन दर्द उपटा है की लगता है, मौत बेहतर है। इसलिए रो रहे हैं, रोज रोज के आंसू अपन आंख में रखने से बेहतर है की तीन चार लीटर लोर एके बार निकल जाए। 

उनके वृतांत को सुनके सभी का आंख छलछला गया, कहानी कम बहुत लेकिन सभी की यही थी।

इसीलिए तो कहते हैं की "शादी उस लड्डू का नाम है जो खाए वो पछताए जो न खाए वो भी पछताए।"

बाकी सब फर्स्ट क्लास है।

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