सोच का रहस्यमयी असर

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ब्लॉग प्रेषक: डॉ. अभिषेक कुमार
पद/पेशा: साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक
प्रेषण दिनांक: 02-10-2023
उम्र: 33
पता: ठेकमा, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर: +91 9472351693

सोच का रहस्यमयी असर

सोच का रहस्यमयी असर
(खुद के भीतर छुपे सुषुप्त शक्तियों से आत्मसाक्षात्कार)
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©आलेख : डॉ. अभिषेक कुमार
          सोच इस सृष्टि का रहस्यमयी आयाम है। पशु पक्षी, जीव जंतु, कीट पतंग, मानव और यहां तक कि पूरी सृष्टि सोच में डूबी हुई है। सोच के द्वारा ही परम पिता परमेश्वर ने इस अनंत कोटि ब्रह्माण्ड का रचना किया है। यूं कहे तो बिना सोच के कोई कर्म भी नहीं होता..! आखिर लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, ठोस, द्रव्य और गैस से रहित सोच होता कैसा है..? तथा इसका उद्गम एवम निवास स्थान कहा है..? इस सृष्टि में कुछ भी आयाम रहित नहीं है, हम आम इंसान अभी तक तीसरे आयाम तक ही अच्छे से जानते आएं हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन और कुछ वैज्ञानिकों ने चौथे आयाम की परिकल्पना दी, सनातनी ऋषि मुनियों ने चौथे आयाम से भी आगे तपोबल से पंचभौतिक शरीर को छोड़ सूक्ष्म शरीर से लोक परलोक की यात्रा कर लेते थें। सोच की गति इतनी है की एक पल से भी कम समय में अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के पार पहुंच सकता है। परंतु यह जो सोच है इसे किस आयाम के अंतर्गत रखें..? यह है न एक रहस्यमयी तथ्य..?

दरअसल सोच रूपी बीज का उद्गम स्थल मन है और यह सोच मन के भूमि पर हृदय और बुद्धि के तर्कों, कुतर्को के खाद पानी पाकर सकारात्मक या नकारात्मक रूपी फल प्रदान करने वाला होता है। बगैर सोच के कोई भी कार्य किसी सजीव के द्वारा नहीं किया जा सकता। इस सृष्टि में धर्म अधर्म, पाप पुण्य से संबंधित या इससे रहित कोई भी नैतिक, अनैतिक कार्य हो रहे हैं उसमें सोच प्रधान रूप से विद्धमान है। सरल शब्दों में सोच ही कर्मो का कारण है। कर्म एकत्रित होकर प्रारब्ध बनते हैं। इसी प्रारब्ध से भाग्य का निर्माण होता है, तदनुसार मनुष्य सुख-दुःख का भागी बनता है। ईश्वर किस्मत नहीं लिखता, किस्मत कर्मो के अकाट्य सिद्धान्त ईश्वरीय विधान का प्रतिफल है। यह सत्य है कि हम अकेले आएं हैं और अकेले जाना है परंतु कर्मो के बंधन में बंध कर आये हैं और कर्मो के बंधन में बंध कर जाना है। साथ में चलने वाले लोग और इर्दगिर्द की परिस्थितियाँ अच्छे-बुरे सोच रूपी बीज से पनपे कर्म फल है।

सभी व्यक्ति के सोच एक समान नहीं हो सकते इसमें आसमान जमीन का अंतर है। शास्त्रों में उल्लेख है जैसा अन्न वैसा मन अर्थात जैसा मन वैसा सोच। जैसे शुद्ध सोना धरती के नीचे कई प्रकार के अशुद्धियों के बीच रहता है ठीक उसी प्रकार से अवचेतन मन कई प्रकार के काम विकार जैसे काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट और प्रपंच जैसे हृदयविदारक भयंकर शत्रुओं से घिरा होता है। अवचेतन मन को जप, तप, योगाभ्यास और हरि कथा सुमिरन से चेतन अवस्था में जागृत किया जा सकता है जहां करोड़ों सूर्य से ज्यादा प्रकाश विद्धमान है। परंतु यह सब तभी हो सकता है जब सोच प्रबल हो। सोच में इतनी ताकत है की व्यक्ति दूसरा ब्रह्मा बन सकता है जिसके साक्षात उदाहरण है ऋषि विश्वामित्र जिन्होंने रघुवंशी त्रिशंकु राजा के लिए दूसरा समानांतर स्वर्ग बना दिया था। शास्त्र पुराणों में एक नहीं हजार ऋषि मुनियों, तपस्वीयों, राजाओं महाराजाओं ने अपने अनोखे सोच और कर्मो से एक नहीं कई बार इंद्र की गद्दी पा लेने में सफल हुए, मनवांछित वरदान प्राप्त किए।
असल में इस खूबसूरत वसुंधरा पर जितने भी असाधारण महामानव, बेशुमार दौलतपति, नामी गिरामी व्यवसाई, वैभव संपन्न नेता, प्रणेता, प्रभावशाली नौकरी पेशा के व्यक्तिगण, फक्कड़ स्वभाव, सांसारिक मोहमाया, धन संपदा से परे संत महात्मा, साधुगण और गरीबी, लाचारी, बेबसी, पिछड़ेपन से जूझ रहे अभावग्रस्त जन समुदायगण ये सभी अपने-अपने सोच के कारण ही विभिन्न स्वरूप धारण किए हुए हैं। मानवता और दानवता के बीच, गरीबी और अमीरी के बीच सोच का ही फासला है। सोच में इतनी ताकत है की पृथ्वी पर तय समय सीमा पहले भी प्रलय लाया जा सकता है।

उमंग, उत्साह और प्रबलता के साथ निरंतर मन में यदि कुछ पाने, खोने के लालसा लिए सकारात्मक, नकारात्मक कुछ भी दृष्टिकोण से सोचा जाए तो मन मस्तिष्क से निकली हुई अदृश्य तरंगें पूरे ब्रह्मांड में फैल जाती है और इस सृष्टि में सूक्ष्म कंपन होने लगती है। कई लोगो के सोच विचार रूपी तरंगों को आपस में एक दूसरे से एवम ब्रह्माण्ड कटार में टकराने से एक ध्वनि भी सदा सुनाई देती रहती है जिसे एकांत शांत वातावरण में कानो से सुना जा सकता है। यह आवाज झिंगुरो के आवाज से मिलता जुलता है। दिन या रात में झिंगुरों का शोर तो होता है परंतु यह सभी जगह नहीं होते, पच्चास, सौ तल्ले के ऊंचाई वाले छतों पर भी इस ध्वनि का एहसास किया जा सकता है। इस सृष्टि का नियम है जो जैसा सोचेगा प्रकृति उसके लिए वैसा ही इर्द गिर्द माहौल बनाएगी। सोच का सिद्धांत कैसे काम करता है आइए हम उस पर प्रकाश डालते हैं - जिसे किसी प्रिया की सोच है मुझे प्रियतम मिले तो उस सृष्टि में कोई ऐसा भी प्रियतम है जिसे प्रिया की तलाश है। इन दोनो के मन मस्तिष्क से निकली तरंगें अंतरिक्ष में टकराएंगे फलस्वरूप दोनो पंचभौतिक शरीर जीवन के किसी मोड़ पर एक दिन मिल जायेंगे और प्रेम के पुष्प खिल जायेंगे। कामवासना, अनैतिकता की सोच में डूबे दुराचारी व्यक्ति को भी एक न एक दिन अवसर मिल जाता है और वह अपराध की सीमा पार कर जाता है फिर उसे भौतिक जगत में कानून की छड़ी से दंड दिया जाता है और यमलोक में भी कालदंड से खूब पिटाई के उपरांत घोर नरको में धकेल दिया जाता है जहां वह जीव भयंकर कष्ट को पाता है।
कोई व्यक्ति धनवान, शक्तिवान, सामर्थ्यवान बनने को निरंतर सोचता है तो प्रकृति अपने नियमानुसार उसके इर्द गिर्द अवसर के द्वार खोल देती है। उस व्यक्ति अपने भुजबल से अवसर को भाग्य समझकर निरंतर उस दिशा में पूरे मनोयोग तल्लीनता से कार्य करने लगता है तो एक दिन के कार्यसिद्धि का समय आ ही जाता है और उस दिन उसकी चाही हुई वस्तु उसके सामने होती है यह ईश्वरीय विधान है। तभी तो देव दानव, सुर असुर वर्षो तक कठोर तपस्या कर ब्रह्मा विष्णु और महेश को प्रसन्न कर मनवांछित फल प्राप्त कर लेते थें। ठीक उसी प्रकार आज भी कोई व्यक्ति अपने सोच, श्रम एवं लगनशीलता से इस संसार के कोई भी वस्तु या पद पा सकता है। प्रारब्धावश यदि इस जन्म में न मिल सका तो अगले जन्म उसके द्वारा चाही गई वस्तु उसे निश्चित मिलेगा। पौराणिक कथाओं में महराज भारत का प्रसंग आता है उन्हें एक हिरण के बच्चे से आत्मीय लगाव हो गया था। अंत समय में भी उनके चित्त से हिरण का सोच विदा नहीं हो सका अर्थात अगले जन्म में वे हिरण ही बने।

इस सृष्टि, प्रकृति के संतुलन नियमानुसार सकारात्मक और नकारात्मक सोच में भेद नहीं करती। जो व्यक्ति अपने सात्विक, राजसी या तामसिक स्वभाव से जिस प्रकार जो कुछ भी सकारात्मक नकारात्मक सोचेगा तदनुसार प्रकृति उसके समक्ष वैसा ही माहौल बनाएगी। इक्कसवीं सदी में वाज्ञानिको ने इस सिद्धांत को "आकर्षण के सिद्धांत (Law of Attraction)" की संज्ञा दी। इस सिद्धांत पर हॉलीवुड वालो ने डेढ़ घंटे की एक फिल्म 'द सीक्रेट' भी बनाया है। इस फिल्म का मूल सार भी यही है की इंसान जैसा सोचता है प्रकृति उसके अनुरूप ही व्यवहार करती है। सोच ही आकर्षण का मूल कारण है। जिस व्यक्ति के पास जितना प्रबल सोच शक्ति है वहां आकर्षण बल स्वत: उतना ही के सापेक्ष में लगेगा इसमें कोई किंतु परंतु नहीं है।

खास बात यह है की इतने सरल और सटीक सोच के रहस्यमयी सिद्धांत को आम आदमी समझता और बुझता क्यों नहीं है..? जिन्होंने यह सिद्धांत को समझ और बुझ लिया वास्तव में वे ही ध्रुव तारे की भांति इस संसार तेज प्रकाश के साथ दमक रहे हैं। कोई व्यक्ति जानबूझ कर सोच के सिद्धांत को अंगीकार कर रहा है या अनजाने में अज्ञानतापूर्ण वह हठपूर्वक अमल में ला रहा हो यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है जो जैसा सोचेगा प्रकृति उसके अनुरूप ही सृजन करेगी। शरीर में तमोगुण, रजोगुण की प्रधानता व्यक्ति के नकारात्मक, नीरस सोच की ओर अग्रसर करते हैं। आगे चल कर कर्म के विधान अनुसार वह व्यक्ति चिंता, रोग दुःख, भय संताप से ग्रसित होगा। शरीर में सत्वगुण की प्रधानता एक अच्छे, जनकल्याणकारी सोच को जन्म देता है जिससे खुद का भी कल्याण हो जाता है एवं परहित की भी भावना मन में सदा वास करती है। वास्तव में सोच एक जादू है, सोच से ही मन में सकारात्मक, नकरात्मक भावनाएं पैदा होती है। यही भावनाएं कर्म करने को उकसाती है। यह जरूरी नहीं की यह रहस्य तुरंत काम कर दे, इसमें कई महीने और साल भी लग सकते हैं उतना धैर्य एवं उत्साह भी होना जरूरी है। सत्य सकारात्मक सोचने के उपरांत एक न एक दिन सफलता रूपी चमत्कारिक परिणाम निश्चित मिलेंगे।

प्रकृति अपने सिद्धांतों को टूटने नहीं देती परंतु सोच में एक ऐसी शक्ति है जिसके प्रभाव से प्रकृति अपने नियमों में बदलाव करने पर विवश हो जाती है। उदाहरणार्थ सद्गुरु कबीर ने कभी कहा था धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय। अर्थात प्रकृति ने इंसानों के लिए ऋतुओं के अनुसार विभिन्न प्रकार के फल सब्जी का इंतजाम किया है। इंसानों ने अपनी प्रबल सोच के दम पर ही शरद ऋतु में आम पनपे और शीत ऋतु में आम पके यह पद्धति विकसित कर लिया है, जबकि आम ग्रीष्म ऋतु का फल है। इसी प्रकार अन्य कई फल और सब्जी बेमौसम, बेस्वाद उगाए जा रहे हैं। प्रकृति प्रदत्त निर्धारित आकार के पेड़ो को इंसानों ने अपनी सोच के दम पर ही बौना बना दिया है। विकृत और बौने किए गए पेड़ो से बेमौसम फल, सब्जी का सेवन स्वास्थ्य के लिए कितना लाभदायक, नुकसानदायक होगा यह तो वक्त ही बताएगा। इंसानों की सोच ने ही इस खूबसूरत वसुंधरा को छोड़ अन्य ग्रहों पर जीवन की तलाश कर रहा है। मानवीय सुख सुविधा हेतु तमाम प्रकार के नित्य नवीन उपकरणों का खोज एक सोच का ही नतीजा है। धन की तृष्णा और धन का दान यह दोनो परिस्थितियां भी सोच पर ही आधारित है। दुनियां के जितने भी सफल, असाधारण व्यक्ति हैं उनके सफलता का राज केवल और सोच है जिन्होंने लीक से अलग हट कर कुछ निरंतर सकारात्मक विश्वास के साथ सोचा। अधिकांश व्यक्तियों का मत होता है की किसी व्यक्ति के सफल और उन्नत होने में किसी न किसी दूसरे व्यक्ति का हाथ होता है परंतु असल में यह उनकी मिथ्या मत और भ्रम है। वास्तव में कोई भी व्यक्ति कुछ करने के पहले सोचता है, उसकी धाराप्रवाह प्रबलतम सोच के कारण उसके मन मस्तिष्क से निकली तरंगें ब्रह्माण्ड में गूंजती है तदुपरांत यहीं पर उसके सोच के अनुरूप आकर्षण पैदा होता है फलस्वरूप प्रकृति उस व्यक्ति के इर्द गिर्द वैसा माहौल बना देती है फिर स्वत: दूसरे सहयोगी व्यक्ति से जुड़ाव हो जाता है और लक्ष्यों को साधने में सहूलियत हो जाती है। इस सृष्टि के संतुलन में सभी वस्तु परस्पर एक दूसरे के सहयोग से ही टिके हैं यदि ऐसा न हो तो सूक्ष्म संतुलन बिगड़ जायेगा। इंसानी सभ्यता भी एक दूसरे के परस्पर सहयोग से ही जुड़ी है। इन परस्पर सहयोग का मूल आधार सोच ही है।

अज्ञानता, मूढ़ता तथा शरीर पर रजोगुण, तमोगुण के प्रभाव के कारण व्यक्ति कर्मानुसार प्राप्त वर्तमान परिस्थिति को ही सत्य मानकर पारिवारिक बोझ और दायित्व के तले कर्म करता चला जाता है फिर एक दिन इस संसार छोड़ कर जाने की बारी आ जाती है। जीविकोपार्जन हेतु धनार्जन की चाह में विभिन्न कंपनियों में कार्यरत लाखो करोड़ों मजदूर, कर्मचारी 10 से 12 घंटे काम करने के उपरांत पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वहन इसके बाद उनके पास सोचने तक का फुरसत नहीं है तथा इसी क्रम में पूरा उम्र गुजर जाता है यह देखा और समझा जा सकता है परिवेश के लोगो से। परंतु उनमें से कुछ मजदूर और कर्मचारी जिस दिन से मालिक बनने के लिए सोचने लगता है, समयोपरांत भाग्य भी उसका साथ देने लगता है। अंततः एक दिन वह मालिक बन ही जाता है ऐसे कई उदाहरण आपके आस पास नाते रिश्तेदारो में मिल जायेंगे। कोई साधारण गरीब वोटर भी यदि विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, राष्ट्रपति आदि बनने की प्रबल सोच रखता है तो एक न एक दिन प्रकृति उसे जरूर बना देगी यह अटल सत्य है। आज तक देश और विभिन्न राज्य के जो भी प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्री हुए और जो आगे होंगे वे सभी अपने अपने सोच के कारण ही हुए है और आगे भी होंगे।

      अत: डगर कितना भी घनघोर अंधेरा से लिपटा क्यों न हों, यदि किसी व्यक्ति की सोच उमंग, उत्साह, आत्मविश्वास और सकारात्मकता से लबरेज हो तो प्रकृति स्वयं उजियारे की व्यवस्था करेगी यह मेरे दृढ़ विश्वास है। इस लिए व्यक्ति को अपना लक्ष्य सिद्ध कर अच्छा, सकारात्मक सोचना चाहिए। दिन में किसी भी समय, खास कर रात्रि में सोने से पूर्व और सुबह में  जागने के उपरांत ख्वाब देखने चाहिए। सोच के जरिए मानो अपनी लक्ष्य पूर्ति हो गया हो इस काल्पनिक परिदृश्य का आनंद अनुभूति उसे आत्मसात करने से असल में वह ख्वाब जल्दी आकर्षित हो जाता है तदुपरांत सोचा और देखा गया ख्वाब वास्तव में मुकम्मल हो जाता है। यह रहस्य आज भी रहस्य है जो हर व्यक्ति नहीं समझना चाहता। जो इस सोच के रहस्य को समझ गए वह कहां से कहां पहुंच जायेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है।

सबका मंगल सबका भला हो...


भारत साहित्य रत्न व राष्ट्र लेखक उपाधि से अलंकृत
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदाय सेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केन्द्र 

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