तू कैकई, मैं दसरथ।

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ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा: व्यंगकार
प्रेषण दिनांक: 02-01-2023
उम्र: 35
पता: गढ़वा झारखंड
मोबाइल नंबर: 9006726655

तू कैकई, मैं दसरथ।

शादी के वक्त सात वचन क्या दिया की वो अपने आप को कैकई और मुझे दशरथ समझने लगी। कैकई ने तो एक वचन राज्याभिषेक के लिए मांगा लेकिन मेरी वाली तो एकवचन को बहुवचन में शामिल कर, प्रतिदिन वचन की मांग करती है, ताकि मैं उसकी मांग पूरी करते करते मांग कर खाना शुरू कर दूं। 

गरीब घर में मेरा जन्म और लड़कियों की संख्या में भारी कमी के कारण मुझे शादी की जल्दी थी, कहीं मेरे हिस्से वाली हाथ से निकल ना जाए इस डर से किसी भी लड़की से प्रेम विवाह का मन बनाया। साला ऐसे तैसे, न जाने कैसे कैसे लोग लड़कियों को लेकर भाग जाते हैं, और एक दो साल बाद दो से तीन होकर लौटते हैं, फिर सब खुश, उन्हे परिवार के साथ साथ समाज भी अपना लेता है।

मेरे अथाह दुःख का कारण कोख में लड़कियों को मारा जाना भी है क्योंकि लड़कों के अनुपात में इस देश में लड़कियों की भारी कमी से कई लौंडे बिना व्याह के बंडा की श्रेणी में आ गए हैं।

मुश्किल से एक लड़की हाथ आई, बिना मौका गवाएं, मां के सपनों और बाप के लोभ को तिलांजलि देकर मैंने चट मंगनी पट ब्याह का प्रस्ताव दिया। मेरे इस प्रस्ताव ने मेरे ससुर को मुझमें देवता दिखा और मेरे परिवार को मुझमें असुर। शहनाई बजी, अरे नहीं शहनाई की धुन पर मेरे दोस्त कहां नागिन डांस करने वाले थे, प्रारंभ में तो वो सब ""राते दिया बुता के पिया क्या क्या किया" पर नाचे और जैसे जैसे मूड में आएं की फिर जनरेटर के आवाज पर लोट पोट के नागिन डांस। जनरेटर का मधुर आवाज के सामने फिर कहां कोई भोजपुरी और हिंदी संगीत काम करता है। समझ रहे हैं न। ज्यादा मत खुलवाए, आप भी देखें होंगे।

बिदाई के वक्त अपने घर में और गांव में मैने लड़कियों को गीत गा गाकर रोते और परिवार से लिपटते देखा था, और बिदाई के वक्त जो लड़कियों के मुंह से तरन्नुम निकलता था वो तो अद्भुत होता था। जैसे सहेलियों से मिलते वक्त " मनवा के बात अब केकरा से करबई, जे तोरा से कहली सबसे मत बतईहे री साथी।

बाबूजी से मिलते वक्त - आपन परिया के पराया बनइला ये बाबूजी,और लंबी दहाड़। एक वक्त तो लगा की साला घर जमाई ही बन जाए, इतना तो बवासीर के ऑपरेशन के बाद रोगी भी नही रोता जितना ई रो रही थी। साला भक मार गया था हमरा, लग रहा था बकरी के जबह करने ले जा रहे हैं। किसी तरह उसे बिठाया गया मेरे गाड़ी में टांग कर। आश्चर्य तो तब हुआ जब दूरा से गाड़ी चल दी। सिसकी तक गायब थी, और चेहरे पर एक आत्मविश्वास। मुझे याद आया मेरे ससुर ने निकलते वक्त बोला था - छब्बीस साल हम अपने परी को झेले हैं दामाद जी अब आप पर है कोई कमी नहीं होने दीजियेगा।

खैर, पहले ही दिन मैंने अपनी धर्मपत्नी को वचन दिया, संसार का सभी सुख तुम्हारे कदमों में होगा, इसके लिए दिन रात मेहनत करूंगा। बस यही कहने का कहायल हो गया। दूसरे दिन सुबह मेरे वचन को मुझे याद करवाया गया एक झुमके के डिमांड से। जोश में मैने कह दिया ला दूंगा। जितना गोड लगाई मिला था सब मिलाकर और साहूकार से दस रुपया सूद पर साढ़े चार हजार रुपया लेकर एक झुमका लाया। धर्मपत्नी की खुशी देखते बनती थी। फिर वो मायके चली गई, मेरा संसार सुना हो गया था। दूसरे बार जब वो आई, फिर से वचन याद दिलाई की भौजी के बहन की शादी में छपरा वाली बुआ की ननद एक हार पहनी थी, सब उसका तारीफ कर रहे थे, मुझे भी वैसा ही हार चाहिए। एक बार तो लगा की फीट मार देगा मुझे, लेकिन करेजा को कठोर बनाकर मैने अपने आप को संभाला। मैं बोला तीन महीने का समय दो जरूर ला दूंगा। तीन महीने मेरी वो सेवा हुई की क्या बताऊं। रोज गोड़ में तेल और सर पर मालिश। आह आनंद ही आनंद। लेकिन भगवान को जो दुख देना होता है, तो उस से पहले वो अनवरत सुख की अनुभूति आपको प्रदान करते हैं। इसी बीच साल के प्रमुख त्योहारों पर श्रीमती जी को नए नए साड़ियां भी चाहिए। पहले तो सुहाग की रक्षा के लिए तीज हमलोग के यहां मनाया जाता था लेकिन अब करवाचौथ और न जाने क्या क्या। त्योहार लंबी उम्र क्या देगा की टेंशन भरी जवानी में उठा लेगा। शादी हुए दो साल भी नही हुए की दो अलमीरा भर गए उनकी साड़ी से लेकिन मन नही भरा, कभी पैठनी कभी बनारसी, कभी सूती तो कभी रेडी टू यूज, कभी झालर वाला तो कभी चिकन कढ़ाई वाला। एगो हम हैं की एक बुसट और एक पैंट पर पूरा साल निकाल देते हैं, चार दिन एक कपड़ा पहनते हैं, नजदीक से सूंघने वाला कहीं आज पास चूहा मरा होने की बात कहने लगता है, और एक हमारी मैडम। सैंडिल भी उनको साड़ी के रंग का ही चाहिए, यानी जब साड़ी तब सैंडल और साथ में चूड़ी और बिंदी। साड़ी तो फिर भी ठीक है लेकिन हिल वाला सैंडल से चोट ज्यादा लगता है। 

 जैसे ही तीन महीना बीता की रोज शाम को किसी कार्यालय के बॉस सरीखे रिमाइंडर पर रिमाइंडर। एक बार तो लगा की गृह त्याग कर बुद्ध हो जाऊं लेकिन जंगल, शेर और सांप से डर लगता था और भूख भी बर्दास्त नही होता मुझे। किसी तरह कर्ज लेकर हार दिलवाया। लगा घर में रामराज्य आ गया। मन फुलवारी के जैसा खिल गया।

एक दिन वो मुझसे बोली की गांव में मन नहीं लगता, मेरी सरला बुआ शहर में रहती है और मैं भी शहर में रहूंगी। मैने कहा की भारत गांव में बसता है, शहर में तो मजदूर रहते हैं, वो बोली तुम मजदूर ही तो हो, तुम मजदूरी करना मैं तुम्हारी रानी बनकर तुम्हारे पास रहूंगी। दिल फिर से एक बार धक से किया। मैं बोला सोचूंगा, वो बोली दिमाग है तुम्हारे पास की सोचोगे। मैं चुप हो गया। फिर शुरू हुआ घरेलू कलह। अकारण मेरे गृह प्रवेश करते ही बर्तनों की झंकार से मुझे आभास हो जाता की इस गुस्से का शिकार अंततः मैं ही बनूंगा। मैं चुप रहता। चुप रहना भी उसे पसंद नही, वो बोलती तुमने मुझे बुरा भला क्यों कहा, मैं बोलता, मैं तो कुछ बोला ही नही, वो बोलती बहरे हैं हम हमको सब सुनाई देता है, मन में बोलते हो। लेकिन हम मन का बात जान लेते हैं। बिना वजह मुंह फुलाना, बात बात पर मुझे निकम्मा और अपने घर वालों की तुलना अठारह घंटे काम करने वाले हमारे माननीय से करना, बस यही काम रह गया था उसका। जीवन अब कभी कभी ही स्वर्ग बनता, अधिकांश नरक ही लगता था, है और रहेगा क्योंकि शादी वो लड्डू है जो खाया वो भी पचताया जो नही खाया वो भी पचताया। मैने उसे समझाया कि देखो मेरे पास दो गुर्दा, दो आंख है, जो बिक्री योग्य है, यदि कोई खरीददार मिले तो सौदा पटा लो क्योंकि जीते जी तो फरमाइश पूरी होने से रही।

कभी कभी मेरे कुछ मित्र कहते हैं की वो अपने घर पर शेर जैसे रहते हैं, लेकिन अपने अनुभव से कह सकता हूं कि घर पर उनके ऊपर दुर्गा सवार रहती होंगी।

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