मुझ बेवड़ा की बात मत पूछो जी।

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ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा: व्यंगकार
प्रेषण दिनांक: 22-12-2022
उम्र: 36
पता: Garhwa, jharkhand
मोबाइल नंबर: 9006726655

मुझ बेवड़ा की बात मत पूछो जी।

मुझ बेवड़ा की बात मत पूछो जी।


इस दुनिया का शाश्वत सत्य मृत्यु है। जब मृत्यु तय ही है तो साला कर्ज लेकर मर जाना उचित है। इससे पर्यावरण का संतुलन बना रहेगा क्योंकि आप जिससे कर्ज लिए और मर गए तो कर्ज देने वाला कुफूत से अपने आप मर जायेगा। इस नेक काम से स्वर्ग में जाने की संभावनाएं भी प्रबल हो जायेगी। क्योंकि आप यमराज और ग्रहों के कार्य में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। इस प्रकार के महान सोच का मालिक हूं मैं। मैं यानी भारद्वाज। ये सोच ऐसे ही नही आया वरन इस सोच को विकसित करने में अंगूर की बेटी का हाथ रहा है। बचपन में जब ठेले और खोमचे के पीछे चना चबेरन के चखने के साथ लाल पानी भद्र पुरुषों को पीते हुए देखता था, तो जीभ लपलपा जाता था। घर पर आकर खुद से लाल चाय बनाता और चना भुंजता, फिर एक घूंट चाय और एक फांका चना।

ये देख शराबी फिल्म के प्राण सरीखे मेरे पिताजी को मुझमें अमिताभ नजर आता, काश तबियत से उसी समय चार हाथ लगा दिया होता तो आज ये व्यंग आप सब पढ़ नही पाते। साला ई सनिमा जे ना करा दे, गम में हीरो को दारू पीते देख, जानबूझकर गमगीन होने को सोचा। लेकिन बिना कारण गम आए तो कैसे। गमगीन होने के लिए मैंने एक सुंदरी से एक तरफा इश्क किया, जब वो मेरे सामने से मुझे बिना देखे तीन माह निकल गई तो धीरे धीरे मैं गमगीन होने लगा। जैसे ही मेरे दोस्तों को ये पता चला उन्होंने तुरंत गम से आजादी के लिए ठेके से ग्रीन लेबल लाया और मेरे गम से खुश, मेरे दोस्तों ने मेरा गम कम करने के लिए दो पैग पिला दिया। सच में नशा होने के बाद वो मुझे कम याद आई।

अब मैं दिन भर शाम का इंतजार करता ताकि दुःखी हो जाऊ और दोस्त सब मुझे दारू का भोग लगाए।

धीरे धीरे मैं पारंगत हो गया। नशे का आदि लेकिन अब दुनिया को भी दिखाना था की मैं टॉप क्लास का ठरकी हूं। मैं ठेले, रिक्शे वालों पर अपनी नशा उतारने की परंपरा का निर्वाह करना प्रारंभ किया फलस्वरूप जम कर एक दिन उन लोगों द्वारा मेरी कुटाई की गई, फिर मुझमें थोड़ा सुधार हुआ.....  ना ना पीने का नही, नशा उतारने की प्रवृति का।

अब रोज रोज मुझे विदेशी कौन पिलाता सो मैं मशालेदार पर उतर गया। पैसे कहां से आते थे - महाराज मुझे घर में ही चोरी करने की आदत पड़ गई। लेकिन मैने सिर्फ चोरी ही नही की बल्कि अपने बाप के अरमानों को मिट्टी में भी मिलाया और मां के सपनों का दिन दहाड़े गला घोंट दिया।

 प्रतिदिन मेरे मुख से कभी इलायची, कभी नारंगी और कभी लीची फ्लेवर का सुगंध आने लगा, माफ कीजिए मुझे वो सुंगध लगता था बाकियों को दुर्गंध।

कितना आसान होता है न गलत लत का फट से शिकार होना। लेकिन इस पाप से पिंड छुड़ाना भी कहां आसान होता है।

शहर के किसी मुहल्ले का कोई भी नाली नही बचा होगा जहां मैने रात्रि विश्राम ना किया हो। वो नाली अपने आप में मुझे राज सिंहासन की अनुभूति देता था।

 कुछ एक मौकों पर तो साक्षात भैरो बाबा ने मेरा मुंह भी चाटा सार्वजनिक स्थलों पर मेरी अचेत अवस्था में।

शहर के लोग अब तो उदाहरण देने लगे की बेवड़ा बनना है तो भारद्वाज जैसा बनो नही तो मत पियो। धीरे धीरे मेरे वही दोस्त मुझसे कन्नी काटने लगे जो कभी मेरे लिए पौवे का इंतजाम करते थे।

 एक अंग्रेजी के बोतल पर मैं रात भर शादी वाले घर में नागिन डांस किया करता था जहां मेरा साथ उसी घर के फूफा जी देते थे। लेकिन ज्यादा गेज करने के कारण लोग मुझे शादियों में देखते ही भगाने का प्रयास करते और बेइजत करके भगा भी देते, नशे में होने के बाद क्या इज्जत और क्या बेइज्जत।

 एक बोतल दारू के लिए मैं हर किसी के लिए सर्वसुलभ था, कोई भी काम हो मर्यादित या घृणित मेरे लिए तो बोतल का इंतेजाम था।

 मेरे सभी मित्रों की शादी हो गई, नौकरी हो गई और मैं दूसरों की बारात में नागिन डांस ही करता रहा।

हां पीने के बाद अंग्रेजी बोलने का शौक ने मुझे मजाक का पात्र भी बना दिया, मैं करता भी तो क्या, भावना उमड़ उमड़ के बाहर निकलना चाहती थी।

दशहरे और दीपावली पर नए कपड़े जो मेरे लिए खरीदे जाते उसे भी दो चार दिन के बाद मैं बेच कर ठेके की तरफ रुख करता। मोहल्ले के कई घरों में कुकर की सिटी बजने का इंतजार करता और फिर गरम कुकर लेकर चोर बाजार, पीछे पीछे मोहल्ले की भौजी मां बहन करते मेरे पीछे दौड़ती तो लगता मैं कान्हा का कलयुगी अवतार हूं। और फिर पकड़ में आने के बाद तसरीफ की वो सुंताई होती की मत पूछिए। घरों के पुराने छड़, सड़े मोटरों का चक्का, लोहा बेच कर पीना प्रारंभ कर दिया था। अब मैं विख्यात से प्रख्यात होने चला था।

अचानक एक दिन मेरे पेट में दर्द हुआ, लगा मर जाता तो अच्छा था लेकिन प्रभु इतनी आसानी से कहां सजा मुकर्रर करने वाले थे। एक महीना अस्पताल में भर्ती रहा और अस्सी किलो से चालीस किलो होकर निकला। एक साल तक हाथ नही लगाया बोतल को फिर एक दिन मन नहीं माना और अगले दिन फिर अस्पताल। मैने ईश्वर से अपने लिए मौत मांगा लेकिन उस निर्मोही ने मुझे फिर से जिंदा छोड़ दिया। मेरा अग्नाशय खराब हो चुका था।

 जब मैने पीना छोड़ा तो पुस्तकों से गहरी मित्रता कर ली। और कहते हैं न की गहरे मित्र कभी साथ नही छोड़ते। मैने पढ़ाई प्रारंभ की और देखते ही देखते डिग्रियों की झड़ी लगा दी। मेरे मित्रों की हौसलाअफजाई ने मुझे अंततः शैतान से इंसान में परिवर्तित कर दिया। आज मैं एक जिम्मेदारी भरा पद पर सरकार के सेवा में तत्पर हूं। 

लेकिन मेरे भाई जो ये सोच कर की कभी कभी और दो पैग से क्या होगा वो ध्यान से मेरी आपबीती को अक्षरशः पढ़े और खुद निर्णय लें की मैने अपने जीवन में क्या खोया क्या पाया।

 मैने जिल्लत पाई, निराश हुआ, मजाक बना, मनोरंजन का साधन बना और दृढ़ संकल्प के बाद इंसान। यदि जीवन के इतने लेबल खेल कर ही चैंपियन बनना है तो निसंदेह भारद्वाज बनना लेकिन अपने परिवार के सदस्यों की आंखों में एक बार डूब कर देखना जरूर क्योंकि कहते हैं न की भगवान के डंडे में आवाज नहीं होती लेकिन चोट पुरकस लगता है।

बाकी सब फर्स्ट क्लास।

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