| ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
| पद/पेशा: | व्यंगकार |
| प्रेषण दिनांक: | 08-11-2022 |
| उम्र: | 35 |
| पता: | गढ़वा, झारखण्ड |
| मोबाइल नंबर: | 9006726655 |
जो बीत गया है वो पल न आएगा
जो बीत गया है वो पल न आएगा
सूरज आज भी निकलता है, कल भी निकलता था और कल भी निकलेगा। लेकिन सूरज की तपिश के साथ जो कल का रिश्ता था, आज वो लोप हो गया। सूरज हमारे लिए चाचा थे और चांद मामा। बगीचा हमारा पूर्वज की निशानी थी तो फूल हमारे दोस्त।
आज दीपावली पर छोटी बच्चियों द्वारा गांव में घरौंदा बनाया जाता है लेकिन जब हमारा जन्म हुआ तो अमूमन सभी घर मिट्टी के घरौंधा ही थे।
"आरे आबे बारे आबे, नदिया किनारे आबे, बाबू के मुंह में गुटुक। माई रोज सवेरे सवेरे माड़ भात घी के छौकन से जब खिआवत हलई त वाेकर स्वाद एकदम अमृत जैसन लग हल।
देखहु त सवेरे से ई लइका बिना खईले पीले खेले में लागल हई। न बाबू भूख न लग हउ। आबे दे बाबूजी के कहबऊ त पता चलतऊ। ऊ समय बड़ी खीस बरता था।आज भी लगे रहते हैं दिन भर, गधा जैसा खटते हैं, भूख भी लगता है लेकिन भाव बदल गया।
दुपहरिया में जबरदस्ती सुताया जाता था, आराम कर ले बाबू, थक न ह। नींद नही आती थी। आज दोपहर में नींद आती है लेकिन सो नही सकता। सांझ के माई जब गमछी में फरही वाला चावल, थोड़ा सा बेदाम आऊ चना देकर बोलती थी की कान्हु के यहां भूंजवाकर खा लिहे आऊ पानी पी लीहें तो गर्व से निकलते थे और शाम को इयार दोस्त के साथ मिल कर खाते थे।
नदी किनारे बालू पर जब कबड्डी होता था तो गार्जियन लोग बैठ के उत्साह बढ़ाते थे। गिरधारी काका और नवल चाचा रेफरी बनते थे। गिरधारी काका बड़ा ऊंचा कलाकार थे, गांव के ड्रामा में हमेशा डाकू बनते थे, स्वभाव से कड़क लेकिन दिल के नरम थे।
गदहबेर में लालटेन के शीशा साफ करे की जिम्मेदारी हमरा मिला था, राख से शीशा ऊ चमकाते थे की मत पूछिए। लेकिन शीशा चमकाने के बाद लालटेन बालते ही पढ़ाई का बोझ नाजुक कंधा पर उठाना होता था।
"हवा हूं हवा मैं बसंती हवा हूं" कविता जो केदारनाथ अग्रवाल द्वारा रचित थी वो उस समय हम सबों की प्रिय कविता हुआ करती थी, रात को लैंप या लालटेन की रोशनी में जोर जोर से इस कविता का पाठ करने में जो मजा आता था, शायद ही आज कल के बच्चे उस मजा को आत्मसात कर पाएंगे।
पिताजी के आगमन के समय कोई " यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे, मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे" तो कोई "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी " जोर जोर से पढ़ते ताकि अभिभावक को लगे की बच्चा समय से पढ़ रहा है।
रात में जब अमीन सयानी रेडियो सिलोन पर विनाका टॉप टेन कार्यक्रम लाते थे तो नए गानों से मुलाकात होती थी, उधर दुरा पर मंडली बीबीसी या रेडियो दोवायच्वेली सुन कर विश्व घटनाचक्र की जानकारी लेते थे, जो सुबह तर्क का मुद्दा भी बनता था।
प्रमुख त्योहार पर गांव के कुछ रचनात्मक युवकों द्वारा ड्रामा का आयोजन किया जाता था, जिसमे खून मांगे इंसाफ, तकदीर का फैसला, माटी मेरे देश की जैसे शीर्षक वाले नाटक प्रमुख होते थे। गांव में नाटक का पूरा सेट होता था जिसमे परिधान, नकली दाढ़ी मूंछ, तलवार, बंदूक और साजो सामान हुआ करते थे।
कभी कभी बाहर से रामायण वाली मंडली भी आया करती थी, जो करीब दस दिनों तक गांव में रह कर रामायण का चित्रण किया करते थे। पेट्रोमेक्स की रोशनी में राम जी, सीता मां और रावण को देखना आज के मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने से बेहतर होता था।
बोड़ा पर बैठकर यहीं कुछ बालक किशोरावस्था में भी पहुंच जाते थे क्योंकि गांव की लड़कियों का भी जमघट रामायण देखने आता था। नैन मटक्का, पत्र का आदान प्रदान, अल्पकालीन मिलन सब होता था।
इसी दशक में कुमार शानू और उदित नारायण जैसे लइकन बिगाड़ू गायक ने भी कदम रखा, जिनके कारण आशिकी के चक्कर में आधी पीढ़ी का बेडगर्क हुआ है। तु मेरी जिंदगी है, बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए शीर्षक वाले गानों ने कई लड़कियों के पिता का होश उड़ाया उस दशक में।
सबसे मजेदार उस दौर की आशिक़ी थी, प्रिंटेड लेटर पैड में खून से चिट्ठियां रात भर लिख कर मजनू लोग लैला का इंतजार करते थे। लैला भी बड़ी संस्कारी होती थी, सहेलियों का एक लंबा चेन रहता था जिस चेन की अंतिम कड़ी मजनू की बहन होती थी। बहन भी भाई के इन हरकतों की गवाह हुआ करती थी, और गाहे बगाहे भाई को ब्लैकमेल भी बड़ी संजीदगी से करती थी। संपन्न लोग गाना सुनने के लिए डेक रखते थे और स्पीकर वाला बड़ा बड़ा बॉक्स, और हम जैसे निम्न लोग एक स्पीकर को घड़ा के मुंह पर बांधकर बास का भरपूर मजा लेते थे। वीनस, टिप्स, सारेगामा, टी सीरीज की कंपनिया फिल्म के गानों को रिलीज करती थी, कैसेट को दोनो तरफ से बजाया जाता था, एक तरफ औसतन पैंतालीस मिनट बजता था। कुछ सयाने तो अलग अलग फिल्म के गानों को एक ब्लैक कैसेट लेकर अपनी पसंदीदा गानों का संग्रह बनाते थे। उस दौर में नए मित्र भी कई बार फिल्मी गानों के कैसेट के वजह से ही बने जो आज तक कदम में कदम मिलाकर चल रहे हैं।
कुछ और बड़े होने पर व्यस्क सिनेमा का चस्का लगना हम जैसे लड़कों के लिए आम था। जवानी का दौर, शादी के पहले शादी के बाद, प्यासा प्यार, मैं प्यासी हूं जैसा सिनेमा प्रायः दस बजे से सिनेमा हॉल में चला करता था। लेकिन डर भी रहता था की कोई जान पहचान वाले न देख लें, कई बार पकड़ाने पर कुत्ता जैसा कुटाई होता था रास्ते भर। अजय देवगन का हेयर स्टाइल, अक्षय कुमार जैसा कूदना फांदना, सनी देवल जैसा चिल्लाना प्रवृति बन गई थी।
उस दौर में सिनेमा का टिकट लेना भी अपने आप में एक कौशल था, लंबी लाइन और लाइन में लगे सभी लोग के कपार पर पैर रख कर टिकट काउंटर से टिकट लेकर फिल्म देखने से फिल्म का मजा चौगुना हो जाता था। फिल्म भी क्या, प्यार, हीरोइन के बाप का इंकार, जुदाई, मारधाड़ और फिर मिलन, अमूमन यही कहानी हर फिल्म में दिखाई जाती थी, लेकिन गाना जबरदस्त होता था।
उस समय साइकिल अपने आप में bmw हुआ करता था, स्कूल के टाइम पर साइकिल का पैंडल मारना एक अलग ही एहसास था। स्कूल भी मत पूछिए, एक से एक आदरणीय शिक्षक जिनकी पिटाई बहुत तो नही लेकिन कुछ तो काम कर ही गई। यहां मैं पढ़ाई का जिक्र नहीं करूंगा क्योंकि मैं पढ़ने में औसत से भी निम्न था।
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