बस में यात्रा, बस हो गया।

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ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा:
प्रेषण दिनांक: 10-03-2022
उम्र: 35
पता: गढ़वा, झारखंड
मोबाइल नंबर: 9006726655

बस में यात्रा, बस हो गया।

 बस में यात्रा। बस हो गया।

डाल्टनगंज बस स्टैंड में चहल पहल - रांची रांची, सासाराम औरंगाबाद, जपला छतरपुर, हरिहरगंज, गढ़वा अंबिकापुर की आवाज मानो सुपर सोनिक मिसाइल की भांति कान को फाड़े जा रही थी लेकिन औरंगाबाद की आवाज लता मंगेशकर के गानों की भांति कान में रस घोल रही थी, कारण था - सजनी से मिलने जो जाना था। औरंगाबाद शब्द मानो ऐसा लग रहा था जैसे लता जी गा रही हों - "आ लौट के आज मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"।

भईया एक टिकट दीजियेगा, खिड़की साइड का - सब कोई खिड़किए मांगता है जी बाकी के सीट का का करें। झुंझलाते हुए कंडेक्टर साहेब नौ नंबर का टिकेट काट दिए, खिड़की ही था।

बस के चलने का समय दो बजे था, अभी डेढ़ बज रहा था। आधा घंटा स्टैंड का मुआयना ही करना था। " देखो यहां गधा मूत रहा है " जहां लिखा था वहीं से मूत्र की दुर्गंध ज्यादा आ रही थी, बगल में अंगूर सेव केला भी बिक रहा था।

 गंजी पहने ड्राइवर साहेब विमल फाड़कर मुंह में इस प्रकार डाले जैसे अजय देवगन डालता है। उधर खलासी महोदय खैनी में नब्बे ताल दे रहे थे। कन्डेक्टर साहेब के कान में कलम इस प्रकार टीका हुआ था जैसे सरकार विधान सभा में टीका हुआ है।

बढ़ाओ जी बढ़ाओ टाइम हो गया, जल्दी जाओ बढ़ाओ दूसरे बस का एजेंट बोला। ड्राइवर साहेब मुंह के गीलौरी को घोट कर बोले - जाइए न रहे है अब का बसवा उड़ा दें।

 कहां जाना है जी - हां छतरपुर जाएगा। सवारी बोला सीट है - कन्डेक्टर साहेब झुंझला के बोले " अंदर आइएगा की सीटवा वहीं उखाड़ के लाए " सवारी अंदर। अंदर आते ही अगले सीट पर बैठा एक अन्य सवारी बोला - ई सीट कन्डेक्टर का है आगे बढ जा। कन्डेक्टर के है न, कि कलेक्टर के। हम एकरे पर बैठेंगे।

 स्टैंड छोड़ने के बाद बस की स्पीड देख कर लगा कि एक घंटा काफी होगा नब्बे किलोमीटर के लिए - लेकिन .......

 थोड़ी ही देर में यह अहसास हो गया के साइकिल से ही आना चाहिए था। एक तो किराया ज्यादा ऊपर से कहीं भी विश्राम। पड़वा कोई है जी, नाश्ता पानी कर लीजिए यहां दस मिनट बस रुकेगी। ये सुनते ही धक से किया। एक भाई साहेब बोले अभिये न डाल्टनगंज में नाश्ता किए थे केतना नाश्ता करवाईएगा, बढ़ाइए महाराज अनुग्रह नारायण से छौ बजे दिल्ली का ट्रेन पकड़ना है। अब टाइम से ही न जाएगा, हम बोले थे ट्रेन के टिकेट लेने के लिए - कंडैक्टर बोला।

 खैर बस स्टार्ट हुआ, अरे उ पानी लेने गए थे खोजिए न कहां गए । बस रोकवाइए - एक महिला सहयात्री बोली। ड्राइवर बोला खलासी से - अरे देखो न जी कहां गया। खलासी कुछ दूर चल कर देखता है फिर निराशा से बोलता है अब कहां देखे, देखाई पड़ रहा है जे। लगता है ताड़ी पीने चल गया। उधर दिल्ली वाला पैसेंजर - अरे चलिएगा की करिएगा नौटंकी। गजब बना लिए हैं आप लोग, टाइम टेबल का ध्याने नहीं है। मेरा ट्रेन छूट जाएगा जी। चलिए चलिए बढ़ाइए, उ आएगा दुसर बस से। इधर महिला कि बेचैनी बढ़ी जा रही थी। आ गया आ गया

 अरे कहां चल दिए थे जी, जब इतने घूमने का शौक है तो कार बुक करवा लेते बस से काहे जा रहे हैं। दिल्ली वाला पैसेंजर बोला।

बस के भीतर कोहाएं कोहाएँ कोई बच्चा लगातार रोए जा रहा था। अरे चुप कराइए मैडम। लगता है भुखल है। अरे ई त दिन भर भुखले रहता है। बाप पर गया है खाली चिल्लाते रहता है। हां हमरे न कहोगी, ई तोर बाप पर गया है। मौका बेमौका भौंकत रहता है। अरे गाना बजाइए, ई लड़ाई सुनने आए हैं - हां रफी साहेब का ब्जाइएगा - एक बुजुर्ग यात्री बोले।

 थियेटर में आए है, कि कोठा पर, की फरमाइश पर गाना बजेगा बाबा।  जे रहेगा से ही न बजाएंगे। " आई हो दादा लेबू का तू जान, ये जान हमर नखरा देखा के " पवन सिंह का गाना लगा दिए डलाईवर साहेब।

जानते हैं ई अश्लील गाना पान गुंटी, टेम्पु आऊ बस यही सब में ज्यादा बजता है - सभ्य यात्री आपस में बात कर रहे थे। अरे जाने दीजिए लेकिन मज़ा भी इसी में है। हां जी मज़ा काहे नहीं आएगा कभी परिवार लेकर चलिए तब पता चलेगा केतना मज़ा आता है ई सब गाना सुनकर - पीछे से एक गंभीर अधेड़ बोले।

 दूसरी साइड में बैठे एक बंधु ने हाथ बाहर किया, उन्हें पानी की बूंदे महसूस हुई, उन्होंने झट से मुंह बाहर निकाल कर अपने को कुदरती पानी से फ्रेश करने को चाहा, लेकिन ये क्या उधर से उल्टी की बौछार उनके मुंह पर - उन्होंने तुरंत धार्मिक प्रवचन प्रारंभ कर दिया तोहार ...... काहे ला खा लेता है जब निकालना ही रहता है। बताइए त ई केतना गंदा बात है। और मै सामने बोर्ड पर लिखा पढ़ रहा था - यात्री अपने शरीर का कोई भाग बाहर न निकालें। छतरपुर पहुंच के बस ऐसे रुकी जैसे भैंस गर्मी के मौसम में पानी में घुस कर रुक जाती है और लाख निकालने पर भी नहीं निकलती, यही हालत मेरे बस की थी रुकी सो रुकी ही रह गई, थक हार के , काफी देर इंतजार करने के बाद आखिरकार मैने भी छतरपुर बस स्टैंड में एक कप चाय पिया।

नाश्ता करने के बाद मानो ड्राइवर में जान आ गया हो। बस फिर से अपनी रफ्तार पकड़ चुकी थीं। ऐसा लग रहा था औरंगाबाद अब कुछ ही दूर है। 

लेकिन ये क्या , बस फिर से रुक गई। दिल बैठा जा राह था ये सोच के की अब क्या अनहोनी हुई।

कंडक्टर की आवाज आई , उतरिए बस से सब लोग। आज लगता है कोनो मनहूस बैठ गया है बस में। बस पंक्चर हो गया, और मै पीछे मुड़ कर दिल्ली वाले पैसेंजर को देखा, हम दोनों की आंखें मिली मै मुस्कुराया और वो .......  रहने दीजिए लेखन में गाली का इस्तेमाल वर्जित है।

पंचर बना, सब बैठे। बस निकल पड़ी। दिल्ली वाला पैसेंजर बोला आराम से चलिए ट्रेन गया से चल पड़ी अब न पकड़ाएगा। का दलाईवर साहेब आपके बाबूजी बैलगाड़ी चलाते थे, हमरा से जमीन के विवाद था, हम आपके अनुपस्थिति में आपके घर जाते थे ? एक साथ इतने सारे प्रश्न से ड्राईवर बेचारा लज्जित महसूस किया, लेकिन करता भी तो क्या, लोकल बस जो ठहरा, एक टेम्पु भी भर जाने के बाद सीधे गंतव्य पर ही रुकता है लेकिन बस तो बस है।

साढ़े छः बजे बस औरंगाबाद पहुंची, दिल्ली का ट्रेन कब का अनुग्रह नारायण रोड पार कर चुका था, बेचारा दिल्ली वाला पैसेंजर ने तीसरी कसम के राज कपूर जैसी एक कसम खाई कि अब अगर ट्रेन पकड़ना है तो कम से कम छह घंटा पहले घर से निकलना है। और मै, रहने दीजिए रोज ही झेलता हूं, अब आदत पड़ गई है। बस किसी तरह पहुंच ही जाता हूं, क्या करूं। काश मेरे पास भी अपना एक चार चक्का वाला गाड़ी होता।😔😔😔😔😔😔

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