| ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
| पद/पेशा: | व्यंगकार |
| प्रेषण दिनांक: | 02-06-2022 |
| उम्र: | 35 |
| पता: | गढ़वा, झारखण्ड |
| मोबाइल नंबर: | 90067 26655 |
मायाजाल
क्या जी, बचपने से चेहरा अइसा है की ऑर्डर देके बनवाए हो ! उड़ा लीजिए मजाक 'परीक्षा देके आ रहे हैं न, जब जा रहे थे तो रितिक रोशन लग रहे थे, लेकिन बेरोजगार के फौज से जब सामना हुआ तो एकदम नवाजुद्दीन बन गए।
का हुआ विस्तार से बताएंगे - जरूर बताएंगे सुनिए !
जब रोज सवेरे सवेरे दुरा पर किताब लेकर बैठते थे, तो हर आने जाने वाला यही कहता था की देखिएगा कर्मचारी साहेब के यही रेंगा, इनके खानदान का नाम रोशन करेगा। तैयारी जो कर रहे थे हम बीपीएससी का। बुढ़ पुरानिया से सुने थे की आदमी का जुबान जो बोलता है चौबीस घंटा में एक बार सच जरूर हो जाता है। लेकिन हमको किताब पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए था, बुढ पुराणिया तो कुछो कह के निपट लिए।
साला उमर सैंतीस बसंत देख चुका था, हम तीन बार बीपीएससी, तीन बार बीएसएससी, तीन बार जेपीएससी, तीन बार जेएसएससी, तीन बार टेट और आठ बार नेट का परीक्षा दिए, मजाल है की साला एको में हमरा रिजल्ट आ जाए !
ऊपर से इयार दोस्त सब सलाह दिया की किताब तो बहुत पढ़े अब तैयारी यूट्यूब से करो, बहुत सामग्री है वहां। साला इतना न सामग्री मिला की मत पूछिए, कभी सविता भाभी, कभी गर्लफ्रेंड को कैसे नजदीक लाए, कभी दुनिया खत्म होने की भविष्यवाणी, कभी सुंदर बीबी कैसे मिलेगी और कभी स्वप्नदोष कैसे खत्म करे, देख कर ही नींद आ जाता। पढ़ाई का घंटा होता। हां कभी कभी नदी, नाला, पर्वत, समुंद्र और प्रधानमंत्री का नाम जान लेते।
बताइए तो हम आपन परबाबा के नाम नही जानते हैं और इतिहास में औरंगजेब के बाबा का नाम पूछता है। एतने काबिल रहते तो बियाह कटता हमरा। अगुआ आया था हमरा से पूछा बाबू परबाबा के का नाम है ? हम खाली टुकुर टुकुर मुंह देखत रह गए। फिर बोला दिशा कितना होता है ? हम खुश होकर बोले " जी वैसे तो सुबह शाम ही दिसा जाते हैं लेकिन पेट गड़बड़ाने पर पांच छो बार भी हो जाता है। जवाब सुन कर अगुआ ऊ भगान भगा की....। साला चालीस से तीन ही कम हैं लगता है अब बिहाह नही होगा। लेकिन यदि बीपीएससी क्लियर हो जाता है, तो लड़की के लाइन लग जायेगा।
घरे से सब्जी खरीदने आऊ आटा पिसवाने का पैसा मिल जाए तो कटौती करके अपना हिस्सा बचा के आपन अर्थव्यवस्था खूब समझ में आता है लेकिन वही जीडीपी और मुद्रा स्फीति के बारे में प्रश्न आ जाए तो लूज मोसन आने लगता है।
पान के जर्दा तुलसी, चौसठ, तीन सौ, पांच सौ, काला, सरोज का कॉम्बिनेशन कितना हल्का है तुरंत ईयाद हो जाता है, अब H2O को डिफाइन करने में जीभ लड़खड़ाने लगता है, सिनेमा के गाना, गायक, संगीतकार, निर्देशक, निर्माता का नाम केतना आसान होता है, लेकिन अनुच्छेद, और धारा इयाद करने में मरलका नानी इयाद आ जाती है। जुआ के खेल में पैसा पैसा का हिसाब आसान लगता है लेकिन लाभ हानि बनाने कह दीजिए, पेट गुड गुड़ाने लगता है।
उपांकित उदाहरण से आप मेरे तैयारी का आकलन तो कर ही लिए होंगे, मतलब साफ था की बीपीएससी मेरा लक्ष्य नहीं बल्कि बीपीएससी के बाद शादी मेरा एकमात्र लक्ष्य था।
अब आते हैं परीक्षा के लिए जाते समय समग्र सुख और शांति की व्याख्या पर।
जैसे ही एडमिटकार्ड डाउनलोड किया, जैसा सोचा था वैसा ही हुआ। मेरे गृह जिला से चार सौ बीस किलोमीटर दूर मेरा सेंटर बीपीएससी वालों ने निर्धारित किया था। मेरे समझ में ये नही आया की वातानुकूलित कमरे में भी गर्मी के दिन में कैसे दिमाग का एक दो ईंट घसक जाता है।
मुझ जैसे भोजनभट्ट और घुमंतू के लिए सेंटर दूर होना वरदान था और परेशान करने वाले बीपीएससी के अधिकारियों के गाल पर चुम्बन वाला तमाचा। मतलब उनके द्वारा मतलब से दी गई परेशानी में अपना मौज निकालना हम बिहारियों की दृढ़ता को और प्रबल बना देता है। परीक्षा के निर्धारित तिथि से एक दिन पहले घर से दही चीनी खाकर और और मां द्वारा " दही मछली लेते आना" के शुभ वचन के साथ प्रस्थान किया। दिन में एक बजे का ट्रेन था। स्टेशन पर भारी भीड़ उमड़ी पड़ी थी, सभी हमारे जैसे परीक्षार्थी ही थे जो अपने अपने घर से अपना भविष्य बनाने चले थे
ई का है ! चुटी माटी जैसन भीड़। खाली स्टेशन पर आदमी में मुड़ी दिख रहा था। सब भीड़ एक ही प्लेटफार्म पर धीरे धीरे ठुमक ठुमक कर बढ़ता जा रहा था। मतलब जिस ट्रेन से हम जाने वाले थे, उसी से सब जाने वाले थे। सब के सब परीक्षार्थी ही थे।
हम सब ट्रेन का इंतेजार कुछ इस कदर कर रहें थे जैसे चकोर चांद का करता है।
आखिरकार वो घड़ी आ गई , ट्रैन का मधुर ध्वनि कान में पड़ते ही ऐसा लगा जैसे मेरे सपनो की रानी आ गई। लेकिन आत्मविश्वास तब कुछ गड़बड़ाया, जब ट्रेन में पहले से ही कचदह भीड़ दिखाई पड़ा।
ट्रेन का रुकना था की, अरे उतरे दीजियेगा, ओह उतरने दीजिए, काहे जी, उतरे कहे नही दे रहे हैं, साला रांची से चढ़े थे, बोकारो उतरना था, गया पहुंच गए, लेकिन कोई उतरे दे तब न उतरे। साली के विहाह था, बोकारो से ढाई सौ किलोमीटर आगे आ गए, कोई उतरे ही नही दे रहा है। अरे कोई मिलिट्री बुलाइए, दरोगा बुलाइए, कमांडो बुलाइए लेकिन हमरा किसी तरह उतारिए।
पकोड़ा बनाना आसान था ई सब लखैरन के, लेकिन आवरागर्दी करने का बहाना मिल जाता है परीक्षा के नाम पर ई सब के। अरे उतरने दीजिए न जी, देखिए बोकारो जाने वाला ट्रेन भी लगल है, उतर जायेंगे तो पकड़ा जाएगा, अधरतियो के पहुंच जाते तो साली खुश हो जाती। अरे चाचा, काहे चाचा, धक्का मत दीजिए, अब डायरेक्ट पूर्णिया कोर्ट ही उतरिएगा। चुप चाप बैठल रहिए, नही तो ! नही तो का कर लीजिएगा, दस स्टेशन से उतरने उतरने कर रहे हैं, उतरने दे नही रहे हैं ऊपर से धमकी दे रहे हैं। जा रहे हैं बीडीओ बनने, आऊ कर रहे हैं देश के जिम्मेदार नागरिक को परेशान।
अरे कपार पर सवार हो जाइएगा ! अरे अपन पॉकिट में हाथ डालिए, हमर काहे टटोल रहे हैं जी, किसका हाथ है जी, जने तने मत छुईए। आगे बढिए भाई, देखिए तो पंद्रह गो गेट पर लटकल है।
अरे ई एसी बोगी है, इसमें काहे घुस गए आपलोग - एक जिम्मेदार यात्री बोले। एसी बोगी है त हम लोग का करें, नही जाएं। उठिए ढेर बैठ लिए, चाचा को उठाइए तो बबलू, ढेर फुटानी झाड़ रहे हैं। का चा कोनो तकलीफ है का, चलते गाड़ी से फेंक देंगे, सब तकलीफ एके बार में स्वाहा हो जाएगा। चाचा सिमट और कुढ़ कर रह गए। भविष्य के बीडीओ से बात करना कहां आसान था।
२ घंटा बीत चुका था और ट्रेन अभी तक २० किलोमीटर भी नही चल पाई थी। हिंदी का सफर मानो अंग्रेजी का सफर बन गया हो।
सहर फिल्म का गाना " पंख होती तो उड़ जाती" शायद ऐसे ही परिस्थिति में लिखा गया होगा।
खड़े खड़े सोने का आनंद ही कुछ और था, ट्रेन हिले तो लोग हिलें, एकदम फेविकोल का विज्ञापन जैसा माहौल था। सब एक दूसरे से चिपके थे।
बीपीएससी सिर्फ आपके ज्ञान की परीक्षा नही , ये आपके सहनशक्ति का भी परीक्षा लेता है,
सेंटर पर पहुंच गए तो ४०% परीक्षा पास।
पुराने समय में गुरुकुल में इसी तर्ज पर परीक्षा होता था। गुरु अपने शिष्य को दुर्गम जगहों से औषधि लाने को कहते थे, एक तो वो औषधि आसानी से मिलता नही था, यदि मिल भी गया तो कई प्रकार के दुःशाशन, सुशाशन उनके रास्ते में रोड़ा बनकर खड़े हो जाते थे। आज के यात्रा में झपकी क्या लगी, इसी प्रकार के विभत्स स्वप्नों से पाला पड़ने लगा। अरे अब तो उतरने दो, तेज आवाज सुन कर नींद खुली। बोकारो उतरना था तरेगना पहुंच गए। हाय लगेगा कमीनों नही बन पाओगे बीडीओ। अरे काहे सब के श्राप रहें हैं जी, गेट पर जे लटकल है, ऊ हटेगा तब न रास्ता बनेगा। चुप चाप बैठिए।
ट्रेन के एक बोगी में तकरीबन दो हजार पैसेंजर थे, ट्रेन कम कुंभ मेला ज्यादा लग रहा था। वैसे भी शरीर से गिरते पसीने की बुंद निश्चल पावन गंगा की धारा लग रही थी। मन रो रहा था और आंसू भी रास्ता बदल बदल कर निकल रहा था।
बीपीएससी वाले परीक्षार्थियों को बिहार दर्शन का पूरा मौका दे रहे थे, ट्रेन जहानाबाद, पटना, लखीसराय, बेगूसराय, खगड़िया, कटिहार, सहरसा और मधेपुरा होते हुए पूर्णिया पहुंचेगी। परीक्षार्थी बेचारे जो घर से बनाकर लाए थे, रास्ते में उसी को खा लेते थे और खड़े खड़े सीट पर टिके हुए आदमी को देख कर अपनी थकान को भूलने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बेचारे बोकारो उतरने वाले पैसेंजर की हालत सबसे दयनीय थी, उन्हे तो बीडीओ भी नही बनना था। देखिए तो आठ घंटा से पेशाब रोके हुए हैं, कोई हमको टांग के शौचालय तक तो पहुंचाइए। शौचालय में कैसे जाइएगा, वहां आठ लईकन एक साथ बंद है, खूब ग्रुप डिस्कशन कर रहा है।
ई बहुत गलत बात है, जिस दिन परीक्षा रहता है, इस दिन रेल मंत्रालय को चाहिए कि आम पैसेंजर को सूचित कर दे की आप यात्रा न करें, यदि यात्रा करेंगे तो मूत्र रोग और बवासीर के रोगी बनने के आप स्वयं जिम्मेवार होंगे। बताइए तो एक गो साली थी उसके बियाह में भी शामिल नहीं हो पाएं। इमरजेंसी खिड़की पर भी सब आवारा लोग बैठ गया है, मन कर रहा है की खिड़किया तोड़ दें लेकिन ढाई किलो का हाथ भी तो नहीं है हमरा पास।
अरे टीटी कहां लुकायल है जी, पुलिस भी नही दिख रहा है। टीटी पागल है जे नजर आयेगा, या हो सकता है उहो कहीं कोचायल होगा परीक्षार्थी के बीच में। पढ़ाकू टाइप विद्यार्थी चिंतन और मनन में लगे थें, और हमारे जैसा निठल्ला विद्यार्थी लोगों की बात सुन कर मजे लेने में।
किसी तरह राज्य रानी ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुंची। छटपटा के, बोकारो उतरने वाले भाई साहब पहले खुले में मुत्रदान दिए और फिर एकांत में बैठ कर अनवरत गाली। रात में बारह बजे ट्रेन पूर्णिया की धरती को स्पर्श किया, लाजमी है बारह बजे कहीं खाना तो मिलने से रहा। बताइए, दही बारा, बुंदिया, पूरी आऊ आलू दम बनारसी बना होगा साली के बियाह में और यहां इसी पावन दिन को भूखे रहना पड़ रहा है। जरूर इसी जन्म में कुछ पाप किए होंगे, जिसका फल भोगना पड़ रहा है।
उधर स्टेशन पर, जिस परीक्षार्थियों को जहां जगह मिला वही सोने की व्यवस्था में लग गए। प्लेटफार्म का इंची इंची जगह भर गया, प्लेटफार्म पर नियमित सोने वाले आवारा कुत्ते भी आश्चर्यचकित थें की उनके आसन पर अचानक ये कौन लोग विराजमान हो गए।
अगर एक मां अपने बच्चे को इस हालत में देख ले तो उसका कलेजा बाहर निकल जाए, सलाम है उन बच्चों का जो हसते हसते ऐसे तमाम जख्मों का इलाज वो स्वयं कर लेते हैं। शायद ये शिक्षा उन्हे अपने पिता से मिलती होगी। लेकिन कुव्यवस्था उत्पन्न करने वाले बीपीएससी के अधिकारी भी तो अपने मां के कोख से ही जन्म लिए होंगे, या फिर हो सकता है उनके अनेक बाप हों, जिसने कष्ट ना देखा हो।
अरे थोड़ा घसकिए, हमको भी पैर फैलाने दीजिए, इतना बड़ा मच्छर होता है, लग रहा है डायनासोर से पैदा लिया है, मच्छर उठाओ हमको और उड़ा के पंहुचा दो बोकारो। लेकिन नही तुम तो खून चूसोगे। सरकार भी चूस रहा है, अब चलने फिरने भर रहने दो, गलती से आए हैं तुम्हारे शहर - बोकारो उतरने वाले भाई साहब बड़बड़ाए जा रहे थे।
सुबह उठा तो सोचा नित्यक्रिया से निवृत हो लूं, लेकिन शौचालय के बाहर लगी लंबी लाइन ने नोटबंदी की याद ताजा कर दी। शौचालय पूर्णतः एटीएम प्रतीत हो रहा था। काहे जी लाइन आगे काहे नहीं बढ़ रहा है, सूत गया का अंदर जाकर। निकालिए प्रेशर मारले है। चलिए किसी तरह पांच बजे से लगे लाइन से मेरा नंबर सात बजे आया।
अब बारी थी परीक्षा केंद्र तक पहुंचने की। किसी स्थानीय जानकार से अपना सेंटर पूछा तो उन्होंने बताया की आपका सेंटर शहर से पैंतालीस किलोमीटर दूर है। मरता क्या न करता, जल्दीबाजी में सेंटर तक जाने वाले सवारी गाड़ी को पकड़ा और दस बजे सेंटर पहुंचा। प्रकृति की गोद में सेंटर देख कर अचरज हुआ, एकदम एकांत। सेंटर पर परीक्षार्थियों के बैग और मोबाइल रखने का कोई जगह निर्धारित नही किया गया था। पूछने पर की बैग कहां रखे केंद्राधीक्षक ने भभक कर कहा - बरात में आए थे, बैग लेकर आए हैं, फील्ड में रखिए अपन रिस्क पर। अब उन्हें कैसे समझाते की बरात में ही आए हैं सुशासन बाबू के, और बरात निकालना भी जानते हैं, समय आने पर।
चलिए किसी तरह मेरे बैग को भी आवारगी करने का मौका मिला और कई प्रकार के रंग बिरंगी बैगों के बीच मेरा बैग उसी प्रकार विराजमान हुआ जिस प्रकार विजय माल्या अपने कैलेंडर गर्ल के साथ विराजमान होते थे।
परीक्षा प्रारंभ, सवाल देख कर माइग्रेन फिर से उभर गया था, घबराहट और बेचैनी के बीच प्रश्नों को हल करना मैंने प्रारंभ किया। मन में ख्याल आया की काश मैं भी स्लमडॉग मिलेनियर का नायक होता और सारे प्रश्न अपने अनुभव के दम पर ही हल कर देता लेकिन ......।
परीक्षा समाप्त होते ही मैंने अपना बैग उठाया और मिल्खा सिंह की भांति दौड़ लगाई सवारी वाहन के तरफ और अपना मनचाहा सीट पाकर अपने को धन्य किया।
स्टेशन पहुंचते पहुंचते सात बज गए और आठ बजे मेरी ट्रेन थी।
एक तरफ ट्रेन आने की सूचना मिली दूसरी तरफ परीक्षा रद्द होने की सूचना। मन बैठ गया और कांग्रेस के चिंतन शिविर में जिस प्रकार लोग चिंता कर रहे थे उसी प्रकार मैं भी चिंतन में इधर उधर विचरण करने लगा।
तभी बोकारो वाले सवारी पर नजर पड़ी, उन्हे भी परीक्षा रद्द होने की सूचना मिल गई थी। उनके द्वारा दिए गए श्राप पूर्णतः लग गया था। वो अपनी जीत की खुशी में पागल थें और हम अपनी हार के दर्द में घायल।
सब मेरी तरह नही थें, कुछ वो भी थें जो कहीं के नही थें। एक मजदूर का बेटा भी था, एक खोमचे वाले का बेटा भी, एक वो भी था जिसका बाप नही बल्कि मां ने मजदूरी और दूसरे के घर बर्तन साफ करके अपने बेटे को इस काबिल बनाया था की बीपीएससी जैसा परीक्षा दे सके। कुछ परीक्षार्थी को मैंने देखा, मोती सिर्फ समंदर में नही आंखो में भी मिलता है। उनकी उम्मीद पर पानी फिरी थी, लेकिन हौसला खुले आसमान की भांति अनवरत था।
गलती किसकी, परीक्षार्थी की ? बीपीएससी के अधिकारियों की ? सरकार की ? कुकुर जैसा मुंह रखने वाले जन सेवकों की ? ट्रेन की ? बोकारो वाले पैसेंजर की ? या फिर निरीह जनता होने की ?
और दूसरी तरफ मेरा मन गा रहा था " जागो मोहन प्यारे, जागो"। अरे दस रुपए का जरा नींबू मार के चना दीजिए तो, चना पेट में गाद बना देता है। चना खाने के बाद एक लीटर पानी एक परीक्षार्थी की वेदना को बताने के लिए काफी है। जिस तरह खड़े खड़े चार सौ बीस किलोमीटर आए थे उसी प्रकार खड़े खड़े चार सौ बीस किलोमीटर जाना भी था, फर्क सिर्फ इतना था की आने समय उत्साह था और जाते वक्त निराशा का भाव। आत्मविश्वास सिर्फ बोकारो वाले पैसेंजर के चेहरे पर झलक रहा था, न उतरने की जल्दी और न पहुंचने की हड़बड़ाहट।
मैं निराश होकर जैसे ही अपने गृह मंदिर में प्रवेश किया लगा किसी ब्लॉक अधिकारी के रूप में ब्लॉक का चार्ज लिया हूं। मेरे लिए बीपीएससी घर की जिम्मेदारी थी और अभिभावक का आदेश उपायुक्त का आदेश मानने जैसा था।
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