सद्चरित्रवान बनाम दुष्चरित्रवान
सद्चरित्रवान बनाम दुष्चरित्रवान
जाति-पाँति-ऊँच-नींच जैसी कुप्रथाएं आज भी देखने को मिल जाती हैं।इतना समय गुजर जाने के बाद भी ये संकीर्ण मानसिकता खत्म क्यों नही हो रही है। हालांकि पहले से काफी सुधार है सभी का मानसिक स्तर ऊँचा उठा है, परन्तु फिर भी कहीं न कहीं ये संकीर्णता समाज के कुछ लोगों द्वारा प्रकट हो ही जाती है। ऐसी संकीर्ण मानसिकता वाले व्यक्ति अपने आपको दूसरों की अपेक्षा बहुत पवित्र समझते है। उन्हे लगता है कि जो निम्न जातियाँ हैं उनके साथ उठने-बैठने, खानें-पीने, बातची करनें, तथा छूनें से वे अपवित्र हो जाएंगे। उनके लिए अलग बर्तन की व्यवस्था करते हैं ताकि कभी-कभार कोई इस तरह का व्यक्ति आ जाए तो उसे इसी बर्तन में खानें-पीने को दिया जाए।
किस तरह की मानसिकता है...ये.....
कैसा जाति-पाँति, कैसा ऊँच-नीच........क्या मायने हैं इन सब के। कोई एकलाभ बताइए जो इस मानसिकता से मिला हो!!!!!
मुझे तो ऐसी संकीर्ण मानसिकता रखने वाले पे तरस आता है। अबतक क्य सीखें हैं वो अपनें जीवन में ........और क्या सिखाएगें वो अपने बच्चों को......
कहनें को तो वे लोग घण्टों तक पूजा-पाठ करते हैं और अपनेआपको कहते हैं कि मैं आस्तिक हूँ। मेरे ईष्ट देव की मुझपर बहुत कृपा है, मै उन्ही के सद्मार्ग पर चलता हूँ।
मैं श्री राम जी का भक्त हूँ.....
मैं शिव का भक्त हूँ....इत्यादि।
क्या कहें इसे हम.....घमण्ड कहें, मूर्खता कहें, अज्ञानता कहें या दूरदृष्टिहीनता कहें।
वे कहते है कि मैं शिव भक्त हूं, राम भक्त हूॅ, राम मेरे रोम-रोम में बसे हैं। उन्हीं के बताए मार्ग पर चलता हूँ ........इत्यादि,इस तरह की बातें किया करते हैं।
लेकिन जाति-पाँति की बात आएगी तो उनका मुँह चारकोने का हो जाएगा। लगेंगे मुँह बनाने। बड़ी हीनता से देखेंगे अगले व्यक्ति को।
क्या है ये सब.............
एक तरफ आप घोषित करते हो कि आप श्री राम के परम भक्त हो, शिव के परम भक्त हो , परन्तु...............
पुरुषोत्तम श्री राम नें तो सबरी के जूठे बेर खाए थे। अगर आपकी भाषा में जाति शब्द लें तो सबरी कोई ऊँची जाति की नहीं थीं,
उनकी जाति अत्यन्त ही निम्न थी। फिर भी श्री राम नें उनके साथ भेदभाव नही किया। शिव जी नें तो एक निम्न जाति द्वारा भेंट किए गये मांस को भी
ग्रहण कर लिया था। ........
जब पुरुषोत्तम श्री राम एवं शिव जी इस संकीर्ण मानसिकता के कोसों दूर थे, तो कैसे आप अपने आपको उनका परम भक्त कहते हैं।
भक्त तो ईश्वर की प्रतिछाया होता है।
इतनी सारी प्रेरणाएं होने के बावजूद मनुष्य अनभिग्य क्यों बना हुआ है। आखिर कौन सी मानसिकता उसपर हावी है।
इनसब के बावजूद भी वो अपनेआपको सबसे बड़ा आस्तिक कहनें से पीछे नहीं हटता।
मेरे नजर में तो आप सबसे बड़े नास्तिक हैं जो अपने आपको आस्तिक कहते फिरतें हैं।
मनुष्य को मनुष्य नहीं समझते...........
इस ढोंग को खत्म करिए.....जितनी जल्दी हो सके उतनीं जल्दी......नहीं तो जीवन का मूल उद्देश्य क्या है आप नहीं समझ पाएंगे।
इंसान को इंसान समझिए.........तभी आप इंसान हैं, नहीं तो आप जानवर कहलानें के लायक भी नहीं हैं।
प्राचीन ग्रन्थों, पौराणिक कथाओं से प्रेरणा लीजिए। ये सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं हैं। सीखिए इनसे और अपनें आप से तुलना कीजिए.......
ऐतिहासिकता की बात करें तो हमारा ऋग्वैदिक समाज वर्ण आधारित समाज था। फिर भी इस काल में सामाजिक समानता का तत्व अधिक प्रबल रहा क्योंकि सामाजिक विभाजन का आधार पेशा था न कि जन्म। इस प्रकार ऋग्वैदिक समाज तीन भागों में
विभक्त था---पुरोहित, राजन्य (क्षत्रिय) तथा सामान्य लोग। ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें कर्म परिवर्तन के साथ-साथ वर्ण परिवर्तन भी हो जाया करता था, उदाहरण के लिए विश्वामित्र 'राजन्य' वर्ग के प्रतिनिधि थे परन्तु वे कर्म के द्वारा पुरोहित बन गए। उसी प्रकार ऋषि भृगु जो पुरोहित वर्ग से संबद्ध थे, के बारे में ज्ञात है कि उन्होने अनेक राज्यों की स्थापना की थी। ऋग्वेद के उस प्रख्यात सूक्त का भी उदाहरण लिया जा सकता है ,जिसमें एक क्षात्र कहता है---मैं कवि हूँ, मेरे पिता चिकित्सक हैं मेरी माता अनाज पीसती है। यह सूक्त कर्म विभाजन तथा वर्ण एकता को दर्शाता है।
कार्यों के आधार पर वर्ण विभाजन था। फिर भी इनमें अश्पृश्यता नाम की चीज नही थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग थे इसे उपर्युक्त उदाहरण से समझा जा सकता है। ऋग्वैदिक काल के पश्चात् उत्तर वैदिक समाज चार वर्णों में विभाजित हो गया---ब्राह्मण, क्षत्रिय(राजन्य), वैश्य एवं शूद्र।
इस काल में शूद्रो की स्थिति बेहतर थी क्योकि उसके सम्पर्क से परहेज नहीं किया जाता था। इस प्रकार इस काल में भी सामाजिक समानता का तत्व प्रबल रहा क्योंकि यहां पर भी सामाजिक विभाजन का आधार पेशा था न कि जन्म। परन्तु कालान्तर में इन्हीं मे से कई जातियां, जातियों से उपजातियां निकलीं। इसके बाद क्या स्थिति हुई यह बताने की जरूरत नही है.......खासकर �शूद्रों की स्थिति काफी दयनीय हो गयी थी।
ये सब सिर्फ सर्वश्रेष्ठा के होड़ के कारण हुआ......सिर्फ और सिर्फ सर्वश्रेष्ठता के होड़ के कारण।
कुछ समझ में आया कि नही..........
और कितना उदाहरण दूँ...........
नहीं समझ में आया.........
तो और लीजिए.........
ब्राह्मण-----ज्ञान, शिक्षा
क्षत्रिय----सुरक्षा (राजन्य)
वैश्य----व्यापार, कृषि
शूद्र---ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा
अब आप अपनें आपको इन चारों वर्णों की जगह पर बारी-बारी से रखकर देखिए और सोचिए कि ...........
जब आप अपनें बच्चों को समझाते हो उन्हे ज्ञानवर्धक बाते बताते हो तो आप ब्राह्मण हो।
जब आप पे या आपके किसी सम्बन्धी पर कोई मुसीबत आती है तो आप उनकी या अपनी रक्षा के लिए तत्पर रहते हो, तो आप क्षत्रिय हो।
आप अपनें जीवकोपार्जन के लिए कोई न कोई कार्य करते है चाहे वह नौकरी हो या कोई बिजिनेस, तो आप वैश्य हो।
जब आप घर की साफ सफाई करते हो, बर्तन धुलते हो, कपड़े धुलते हो, झाड़ू लगाते हो, तो आप शूद्र हो।
इस तरह तो आप सभी कुछ तो हो......फिर ये ढोंग क्यों।वैश्वीकरण के इस दौर में हर व्यक्ति सुख सुविधाओं का उपभोग करना चाहता है। उसे जितनीं भी सुख सुविधाएं मिले कम ही पड़ती हैं।
फ्रिज चाहिए कूलर चाहिए, आभूषण चाहिए, तरह-तरह के परिधान चाहिए.....इत्यादि।
कभी आपनें सोचा है कि आप ये जो सुख सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। इसको बनानें में कितनें लोगों का योगदान होगा। आप कैसे पता लगा पाएंगे कि अमुक वस्तु किस जाति नें बनाई है। परन्तु तब आपकी संकीर्ण मानसिकता इस तरफ ध्यान नही देगी परिणामस्वरूप आप सुविधाओं का उपभोग बड़े मन से करते हैं। यहां तक कि जो अनाज आप बाजार से खरीदते हैं वो अनाज किसके खेत में बोया गया था ये किसको पता। उस अनाज में किस किसान के मेहनत का पसीना घुला हुआ है ये आप कैसे पता लगा सकते हैं।
इसलिए आप अपनी इस संकीर्ण मानसिकता को त्यागिए और अपनी सोंच का दायरा बढ़ाइए। तब देखिए बिना कुण्ठा के मन कैसा होता है.........कितना आनन्द मिलता है।
और हाँ....अगर आप किसी की जाति का निर्धारण करना चाहते हैं तो आप उसके विचारों, गुण-दोषों, मनोंभावों आदि के आधार पर निर्धारण कर सकते है।
यही जाति के असल मायनें हैं।
सद्चरित्रवान व्यक्ति .....ऊँची जाति का और दुष्चरित्रवान व्यक्ति निम्न जाति का।
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