कहां गए वो दिन पुराने, वो दिन सुहाने

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ब्लॉग प्रेषक: पंकज कुमार चौबे
पद/पेशा: सामाजिक कार्यकर्ता
प्रेषण दिनांक: 20-04-2022
उम्र: 35
पता: दीपूवा, गढ़वा
मोबाइल नंबर: 7258010835

कहां गए वो दिन पुराने, वो दिन सुहाने

"कहां गए वो दिन पुराने, वो दिन सुहाने"

(होली विशेषांक)

   बच्चों में चर्चा होने लगती थी कि अब होली आने में 10 दिन बाकि है तो, कोई बच्चा अंगुली पर गिनकर बताता कि नहीं अब सिर्फ 8 दिन ही बचे हुए हैं। बच्चे शाम होते ही सनकोई (एक पौधा का सूखा डंठल जिससे सुतरी बनाया जाता है) जमा करने लगते, कोई साइकिल की पुरानी टायरों को काटकर "होलो" बनाता । उद्देश्य था शाम को 10 से 15 बच्चों की टोली बनती और उस सनकोई के डंठल को या टायर को जला कर के रात को "होलो" खेला करते । होली के पांच दस दिन बचे हुए रहते थे तब से ही बच्चों द्वारा गांवो में फिर से "होलो" की चहचहाट होनी लगती थी। गावों में महिलाएं माटी के खदान से माटी लाना शुरू कर देती थी, घर इस बार दूधिया नहीं करिवा मिट्टी से लिपाई किया जाएगा । बूढ़े और अधभूढ़ जवान छोटे बच्चों संग रात को फाग गाना शुरू कर चुके होते थे । सभी परदेशी परदेश से गांवो की ओर रूख करते थे। हम सभी अपने चाचा, पापा, भैया के बाट जोह रहे होते थें। गांव के दुसरी छोर जहां बस, ऑटो का ठहराव होता था वहां अपना नजर गड़ाए बैठे रहते थे की अब चाचा,पापा, भईया आएंगे--

      गांव की ओर आने वाली हर बस, ऑटो, रिक्शा एक उम्मीद लेकर आती थी। बच्चों की एक मंडली सड़क से किसी भी प्रदेशी को जाते देख उनके पिछे दौड़ने लगते थे उनके हाथ से अपने वजन से ज़्यादा वजन वाली बैग, अटैची, छोला को छीन उनके दरवाजा तक पहुंचाते थे। जब तक उनका दरवाजा नहीं छोड़ते थे जब तक बैग, अटैची, छोला खोलकर कुछ मिठाईयां, खिलौने इत्यादि नहीं मिलती थी। 

होली के ही बहाने दो बिछड़े यार फिर मिलकर वहीं बचपना वाला हुडंगई करते, होलिका दहन (हमलोग के इधर सम्मत बोलते हैं) के लिए एक रात पहले गांवो से लकड़ी चुराते,होली के दिन समस्त गांव में घूम घूम कर रंग लगाते- लगवाते, खाते-पीते, नाचते-छुमते पूरे दिन कैसे बिता देते पता ही नहीं चलता था। शाम को नहा कर नए कपडे पहन कर गांव के अपने से बड़ों के पैर पर अबीर- गुलाल रख कर उनसे आशीर्वाद लेते थे।

लेकिन अब न कोई परदेशी गांव आने वाले हैं,न ही उनका कोई इंतजार करने वाले है। लेकिन आज भी गांव की सड़कें उस आवारा को बुला रही हैं आओ मेरे ऊपर के पड़े धूल को उड़ा कर मेरे साथ खेलों, पेड़-पौधे भी इंतजार कर रहे हैं कि कोई तो आए की मेरे टहनियों पर चढ़ कर दोल्हा - पत्ता खेले, नदी-तालाब भी बाट जोह रही हैं कि कोई तो आकर मेरे पानी को गंदा करें।

सब पैसे कमाने लगे हैं,पहले के अपेक्षा काफी सुखी संपन्न हो गए हैं,गांव से रिश्ता तोड़कर शहर से जोड़ लिए है। होली रंगों का पर्व त्यौहार ज़रूर हैं लेकिन गांव पर इसका कोई रंग नही चढ़ रहा है। कहा जाता है कि अब हम विकसित हो गए हैं। काश हम फिर उसी सांस्कृतिक पिछड़ेपन में ही फिर चले जाते।

 ये सारे मेरे बचपन की यादें हैं जो मेरे अपने गांव देवगाना की हैं, इसलिए इसे अन्यथा में न लें। वैसे भारत के सभी गावों के हालात तो कमोबेश एक जैसे ही होते हैं । एक चीज और भारत को तो गांवों का और पर्व त्योहारों का भी देश कहा जाता है ।

धन्यवाद

पंकज कुमार चौबे,

गढ़वा(झारखंड)

मो 7258010835

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