| ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
| पद/पेशा: | व्यंग्यकार |
| प्रेषण दिनांक: | 06-04-2022 |
| उम्र: | 35 |
| पता: | गढ़वा, झारखंड |
| मोबाइल नंबर: | 9006726655 |
काश मै दरोगा होता...
मेरे जन्म के बाद मेरी थुलथुला काया को देखते ही पिताजी मुझे भविष्य में दरोगा बनाने को दृद संकल्पित हो गए। समय बढ़ने के उपरांत मेरी आवाज कड़क और व्यवहार असंवेदनशील होती गई और ये देख कर पिताजी खुश होते रहे। खुश होना लाजमी था क्यूंकि एक दरोगा का निश्चल गुण मेरे अंदर विराजमान हो रहा था। पढ़ाई में भी मै कमजोर था, विद्यालय के कक्षा के अंतिम बेंच पर बैठकर आगे की लड़कियों को दिन भर निहारना ही मेरा एकमात्र लक्ष्य था।
वैसे भी एक दरोगा के विषय में जो बात मुझे प्रभावित करता है वह है उसका तोंद और अदरक जैसी काया।
किसी को बेवजह डराकर पैसे ले लेना, पिछवाड़े पर डंडे से प्रहार कर देना। मांडवाली के नाम पर खून का कतरा कतरा चूस लेने जैसे गुण मुझमें विकसित हो रही थी। मेरे श्री मुख से जिस प्रकार धाराप्रवाह गाली अनवरत निकलती उसे देख कर मेरे पिताजी का आत्मविश्वास भी उसी गति से बढ़ती। आख़िर दारोगा जो बनाना था मुझे। व्याकरण में भी मुझे वचन सबसे ज्यादा पसंद था, एकवचन, बहुवचन, दुर्वचन, निर्वचन आदि मुझे प्रभावित करते थे। और गाली तो ऐसे देता था मानो गालिदेव का साक्षात अवतार हूं। मां बहन के साथ साथ रिश्तेदारों को भी गाली में ऐसे सम्माहित करता था कि यदि गाली का ओलंपिक होता तो माईकल फिलिप्स जैसे तैराक के गोल्ड का रिकॉर्ड एक ही ओलंपिक में तोड़ देता। किशोरावस्था तक आते आते अनेक दुर्गुण ने मुझे अपने अंदर समेट लिया। विद्यालय से भाग कर सिनेमा देखना, किसी भी बांध या तालाब में भैंस जैसा घुस कर बैठे रहना, मसालेदार का सेवन इत्यादि कुछ व्यावहारिक गुण का मै स्वामी बन चुका था। किसी बात को कैसे तोड़ मड़ोड़कर पेश करना है, झूठ बोलते बोलते ये कला भी विकसित हो गया था। मेरे इन तमाम उपलब्धियों को देख कर मेरे आदरणीय अभिभावक महोदय अंदर ही अंदर मेरे सुखद भविष्य के प्रति सहज और सजग थे। बूंद बूंद से घड़ा भरता है इसलिए कम की चिंता नहीं वरन् जो भी हो प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की आदत भी आ गई थी मुझमें। वैसे तो एक दरोगा कभी किसी से कुछ लेता ही नहीं, क्यों कि उसके लेने में कामना भाव नहीं रहा! बिना मांगे यदि कुछ मिलता है, तो उस लेने को लेना नहीं, ग्रहण करना कहा जाता है। लोग स्वेच्छा से श्रद्धा भाव से देते रहे और एक दरोगा ग्रहण करता रहता है। ग्रहण करना दरोगा की विवशता होती है, क्यों कि यदि ग्रहण करने से इनकार किया जाता, तो देने वाले की भावन आहत होती और यह उनकी अशिष्टता होती । अत: एक कुशल दरोगा अपनी भावनाओं की परवाह न कर, शिष्टाचार का पालन करते हुए, सदैव ही दाता की भावनाओं का ख़याल रखा करते हैं। एक दरोगा दोनों पक्ष से इतनी कुशलता से बात करता है कि एक भ्रम सी उत्पन्न हो जाती है कि शायद ये समझौता करवा देगा लेकिन ये भ्रम कुछ ही देर में मतिभ्रम में परिवर्तित हो जाती है। अब बारी दुहने की आती है जो लगातार चलता रहता है। एक दरोगा सभी रस को अपने अंदर सम्माहित रखते हैं, श्रृंगार रस का वर्णन वो अक्सर अपराधी के घर जाकर प्रयोग करते हैं और वीर रस जब समूह में होते हैं तब। गरीब से जब पैसा निकालना होता है तो करुणा रस और जब कभी पकड़े जाने पर दांत निपोर लेते हैं तो हास्य रस इनमें सहज देखा जा सकता है। सियार का दिमाग, गधे जैसा मेहनती, चील की नजर, उल्लू जैसा सोना, कुते जैसा लार टपकाना, जिराफ का अकड़ सब था मेरे पास लेकिन............। थोड़ी संवेदनशीलता थी मुझमें, मै थोड़ा भावुक था, यहीं मै फेल हो गया और एक दरोगा नहीं बन पाया। आपका मन यदि टेलीविजन और रेडियो से भर गया हो तो अख़बार पढ़िए प्रतिदिन कहीं न कहीं दरोगा साहेब की कारस्तानियां आपका मनोरंजन करेगी। कल के ही अख़बार में मैंने पढ़ा कि एक बलात्कार पीड़ित से एक दरोगा ने यौन इच्छा कि मार्मिक पेशकश की और पीड़िता के मना करने के बाद पकड़े गए अपराधियों को निश्चल बता कर छोड़ दिया गया।
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